खिड़की


शाम की चाय और खिड़की से एक नज़ारा,
अच्छा लगा पंछियों को चहकता देख कर,
एक ख़्याल ये भी था,
दोबारा कहीं इनसे ये छीन ना जाए!!

आज वो एक बड़े से घर की बड़ी सी खिड़की पर टंगा एक पिंजरा याद आ रहा है,
जिसमे दो बेहद खूबसूरत मिट्ठू हुआ करते थे।
काफी कुछ एक जैसा था हमारी आज की स्थिति 
और उन मिट्ठुओ की सामान्य जिंदगी में।
उनके पास भी आसमां देखने का एक ही साधन था,
और आज हमारे पास भी,
खिड़की।।

हमारे हाथ में तो फिर भी काफी कुछ है,
बटन दबाया, मम्मी को फोन लग गया, 
या किसी दोस्त से हाल पूछ लिए,
जो मन चाहा देख लिया,
जो मन चाहा पढ़ लिया।
खाना बनाना भी सीख ही लिया है,
और घर साफ रखना भी।

उन मिट्ठूओ को तो ये भी नहीं पता था,
परिवार और दोस्त कहां है,
है भी या नहीं, पता नहीं।
मिर्ची दी तो वो खा ली,
रोटी का टुकड़ा दिया तो वो।
सफाई कर दी तो ठीक,
वर्ना उसी रोटी में खेल कर उसी को लपेट कर सो गए।

आज एक ख्याल ये भी आ रहा था,
कपाटों में जो ख़ूबसूरत दुपट्टे रखे है,
काफी दिन हो गए बाहर निकाले, और पता नहीं कितने दिन और ना निकले।
उन मिट्ठूओ के पंख भी काफी रंगीन थे,
क्या पता पिछली बार कब पूरी तरह खुले थे।

आज़ादी जितनी हमें प्यारी है,
उतनी उन्हें भी है,
जितना हक हम जताते है,
उतना हक उन्हें भी है,
बस जताना नहीं जानते!
बेजुबान है न, क्या कर सकते है।

खिड़की की बंदिश शायद उन्हें भी उतनी ही अखरती है,
जितनी हमें आज अखर रही है।
उन्हें भी उड़ने का उतना ही मन करता होगा, 
जितना हमारा।

पंख उड़ने के लिए दिए है, 
ना कि हमारा मन बहलाने,
खिड़की पर दाना डालके देखना,
रोज़ आएंगे तुमसे मिलने।।

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